
अखिल भारतीय बढई महासभा एक नजर में बढई समाज बंधू आर्थिक राजनैतिक व शिक्षा के क्षेत्र में अन्य कई समाजों के मुकाबले बहुत पीछे है। इसके बावजूद भी ज्ञानी है, दानी है, बुद्धिमान है, चारित्र सम्पन्न है, सुस्वभावी है, मिलनसार है, ईमानदार है, जन्म जाति इंजीनियर है, मेहनती है।
फिर भी समाज दिन-ब-दिन पिछड़ता जा रहा है, अपनी पहचान को, अपने गौरव को खोता जा रहा है... क्यों??? क्योंकि एकता का आभाव है । समाज में एकता की कमी है । एकता से बढ़कर कोई शक्ति नहीं है । एकता ही समाजोत्थान का आधार है । जो समाज संगठित होगा, एकता के सूत्र में बंधा होगा ।
उसकी प्रगति को कोई रोक नहीं सकता। किन्तु जहाँ एकता नहीं है वह समाज ना प्रगति कर सकता है, ना समृद्धि पा सकता है और ना अपने सम्मान को, अपने गौरव को कायम रख सकता है। बढई समाज इसका जीता-जागता उदाहरण है ।
हम समाजबंधु एकसाथ रहते तो है। लेकिन क्या हम उन्नत्ति-प्रगति के लिए एक-दूजे का साथ देते है? नहीं ; तो सिर्फ एकसाथ रहने का कोई मतलब नहीं । एकसाथ इस शब्द को कोई अर्थ तभी है जब हम एकसाथ रहे भी और एक-दूजे का साथ दे भी । ऐसी एकता को ही सही मायने में 'एकता' (Unity) कहा जाता है ।
समाज में एकता को कायम रखने के लिए समाज शास्त्रियों ने 'संगठन' नामक एक व्यवस्था सूचित की और हर एक समाज ने इस व्यवस्था के महत्त्व को समझते हुए इसे अपनाया । बढई समाज में भी कई संगठन बने हुए है ।
समाज के संगठन का पहला काम होता है की समाजबंधुओं में अपने धर्म या जाती के प्रति एक अस्मिता को, स्व-अस्मिता को, गर्व की अनुभूति को जागृत रखें । अपनी संस्कृति को समाजबंधुओं के जीवनशैली का एक अंग बनाकर अपनी संस्कृति का संरक्षण-संवर्धन करें ।
समाज की एकता के लिए यही सबसे पहली जरुरत है, पहली शर्त है । किसी मराठा को, राजपूत को, सिख को, अग्रवाल को, जैन को देखिये उन्हें अपने मराठा, राजपूत, सिख, अग्रवाल, जैन , ब्रह्मण , मौर्य , यादव , कुर्मी होने पर गर्व होता है । अस्मिता और संस्कृति का यही मजबूत धागा समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखता है ।
क्या आज बढई समाज में अपने " बढई " होने के प्रति वह अस्मिता, वह गर्व की अनुभूति जागृत है? बढई संस्कृति के आन-बाण-शान के लिए, संरक्षण-संवर्धन के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगाने का जज्बा बचा है? क्या समाज के युवाओं को अपने " बढई " होने पर नाज होता है? गर्व अनुभव होता है? यदि नहीं तो यह बात पत्थर की लकीर है की समाज में, समाज के नाम पर एकता बन ही नहीं सकती और ना ही संगठन बन सकता है ।
बिना इस स्व-अस्मिता के समाज का संगठन बन ही नहीं सकता और जैसे तैसे बन भी जाये या बना भी ले तो ना उस संगठन का समाज पर कोई प्रभाव रहता है। और ना ही समाज के लोगों को संगठन से कोई लगाव रहता है । संगठन मात्र एक औपचारिकता भर बनके रह जाता है ।
ऐसी स्थिति में कोई नेतृत्व, कोई संगठन समाज में एकता कायम नहीं कर सकता । एकता के लिए "स्व-अस्मिता" यही बुनियादी जरुरत है । जैसे विवाह के लिए बुनियादी जरुरत होती है- एक विवाहयोग्य लड़के की और लड़की की । बाकि सब जरूरतें... रिश्तेदार, यार-दोस्त, बाराती, पंडितजी, विवाह के अन्य इंतजाम आदि सब बाद की बात है ।
आज हम समाजबंधुओं खासकर युवाओं से ' बढई जाति के संस्कृति' के बारे में उनकी जानकारी जानना चाहे तो वो कुछ बता नहीं पाते है । कई समाजबंधुओं से व्यक्तिगत बातचीत में जब हमने कहा की, चलो... बढई संस्कृति/कल्चर के बारे में कोई ऐसी बात बताएं जिसे की समाज के सभी लोग कहे की हां, इस बात पर हम सभी एकमत है ।
बस ऐसी दो बातें ही कुछ समाजबंधु बता पाये- लकडी का कार्य व जन्म जाति इंजीनियर । ऐसा नहीं है की बढई की कोई संस्कृति ही नहीं रही है या जीवनशैली में, दिनचर्या में उनका समावेश ही नहीं रहा है । किसी नामविशेष से कोई समाज होता है, जैसे की- जैन, अग्रवाल, राजपूत आदि ; तो उस समाज की अपनी संस्कृति भी होती ही है।
बिना किसी संस्कृति के, बिना किसी ऐसी समान बातों या चीजों के जो की उस समाज के सभी लोग एकसमान रूप से करते है कोई समाज निर्माण ही नहीं होता, बन ही नहीं सकता । मित्रों, जब बढई समाज की उत्पत्ति हुई थी, जब हमारे पूर्वज ब्रह्मण थे उस समय बढई समाज के धार्मिक-आध्यात्मिक-सामाजिक प्रबंधन हेतु समाज-गुरु भी बने थे ।
समाज को दिशा देने का, मार्गदर्शन करने का कार्य एक व्यवस्था के रूप में समाज-गुरुओं को सौपा गया था । तत्थ्य बताते है की गुरुओं ने एक सुव्यवस्थित प्रणाली, एक व्यवस्था का निर्माण किया था जो बढई समाज के उत्पत्ति के बाद हजार-बरसौ वर्षों तक सुचारू रूप से चला । आज हम में से ज्यादातर समाजबंधुओं को उस बारे में कुछ भी पता ही नहीं है ।
दुख के साथ कहना पड रहा है की समाज के संगठन इस " बढई अस्मिता" को समाजबंधुओं में जागृत रख पाने में नाकामयाब रहे है । समाज के संगठन की इस नाकामयाबी का, लापरवाही का खामियाजा आज समाज को भुगतना पड़ रहा है ।
मित्रों, एकता के लिए आवश्यक यह कार्य कोई महीने दो महीने का अभियान नहीं होता है बल्कि ऐसे एक व्यवस्था के रूप में कार्य करता है जो एक प्रक्रिया की तरह निरंतर चलता रहता है । समाज के गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए, समाजबंधुओं की आर्थिक प्रगति हो जिससे की समाज समृद्ध हो इसलिए समाज में एकता होना जरुरी है।
और समाज में एकता के लिए ऐसी एक स्थाई व्यवस्था का पुनर्निर्माण जरुरी हो गया है ।
समाज के संगठन का दूसरा मुख्य काम होता है की समाजबंधुओं के आर्थिक प्रगति के लिए संगठन सहयोगी के रूप में कार्य करें ।
इस कार्य हेतु उचित मार्गदर्शन समय-समयपर करता तो रहे ही बल्कि जहाँ आवश्यक हो वहां हर तरह से सहयोग भी करें । केवल इतना ही नहीं बल्कि समाजबंधुओं के आर्थिक हितों की रक्षा करनेका, समाजबंधुओं को एवं माता-बहनों को सामाजिक सुरक्षा देने का कार्य भी समाज के संगठन को करना होता है ।
ऐसा होता है तो ही समाजबंधुओं को संगठन की जरुरत और महत्त्व है और तभी वे संगठन से जुड़ते है । तब ही समाजबंधु या समाज, संगठन का कहा मानते है । संगठन के नेतृत्व को, पदाधिकारियों को सही मायने में सम्मान मिलता है, समाज पर उनका अधिकार चलता है ।
समाज उनका अधिकार स्वीकार करता है । आज देशभर में, शहर, तहसील, जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन और पदाधिकारी बने हुए है । क्या संगठन और उनके पदाधिकारियों द्वारा यह सब कार्य होते है? यदि नहीं ; तो क्यों समाजबंधु संगठन से जुड़ेंगे? क्योंकर पदाधिकारियों की सुनी जाएगी? अच्छा इसमें पूरा दोष पदाधिकारियों का भी नहीं है ।
वे तो समाजकार्य करने के नेक जज्बे के साथ संगठन से जुड़ते है, जिम्मेदारियों को उठाने के लिए पदाधिकारी बनते है लेकिन संगठन ने ऐसी कोई व्यवस्था का निर्माण ही नहीं किया है की वह समाज के लिए कोई परिणाम कारक कार्य कर सकें ।
शहर से लेकर प्रदेश स्तर पर संगठन और पदाधिकारी बना दिए गए लेकिन उन्हें कार्य करने के लिए जो एक समुचित व्यवस्था और संसाधनो की आवश्यकता होती है वह तो है ही नहीं, ऐसी व्यवस्था (सिस्टम) बनाई ही नहीं गई ।
बिना किसी संसाधनो के पदाधिकारी परिणाम कारक कार्य करे भी तो कैसे करे? फिर वह भी क्या करे? ज्यो, जितना कर सकते है करते है और जैसे तैसे अपना कार्यकाल पूरा कर लेते है । संसाधनो और व्यवस्था के आभाव में वह नाममात्र के पदाधिकारी बनकर रह गए है ।
इसलिए अब यह जरुरी है की एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण किया जाये जिसमें पदाधिकारी और संगठन समाजबंधुओं के काम आ सके । समाजबंधुओं के विकास में, उन्नत्ति में अपना योगदान दे सकें ।
उपरोक्त दोनों बातों के अतिरिक्त और भी कई महत्वपूर्ण बातें है जिसे करने की आवश्यकता है (फिर आगे कभी इसपर समाजबंधुओं के साथ जरूर बात करेंगे) । इन सभी बातों पर समाज के प्रबुद्ध समाजबंधुओं ने दो-ढाई वर्ष गहन विचार-विमर्श किया ।
इस कार्य को क्रियान्वित करनेके उद्देश्य से फेडरेशन के रूप में “अखिल भारतीय बढई महासभा की स्थापना की गई । महासभा की स्थापना बढ़ई समाज के लिए कार्य करने वाले ट्रस्टों, संस्थाओं और संगठनों के फेडरेशन के रूप में हुई है ।
देशभर में समाज के लिए कार्य करनेवाले अनेक संगठन बने हुए है, इन सभी संगठनों को एक मंच पर लाया जा सके, सभी में एक बेहतर समन्वय, संपर्क और सुसंवाद बनाकर समाजहित के कार्य व्यापक एवं परिणाम कारक बनाये जा सकें।
महासभा ने इस प्रस्तावित व्यवस्था का एक प्रारूप, एक कृति कार्यक्रम बनाया है जिससे की अबतक की संगठनात्मक कमियों को दूर करते हुए समाजबंधुओं की आर्थिक विकास दर को तेज किया जा सकें, उनके आर्थिक हितों की रक्षा की जा सकें, उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जा सकें और बढई संस्कृति का संरक्षण-संवर्धन करते हुए समाज के गौरव को पुनर्स्थापित किया जा सकें ।
इस व्यवस्था को सुनियोजित रूप से क्रियान्वित करने के लिए एक चरणबद्ध कृतिकार्यक्रम बनाया है । देश भरके समाजबंधुओं से सलाह-मशवरा-चर्चा के लिए अखिल भारतीय बढई महासभा जल्द ही "बढई संवाद यात्रा" की शुरुवात करने जा रही है। जिसमें देशभर मे जहाँ-जहाँ बढई परिवार बसें हुए है वहां-वहां जाकर समाजबंधुओं से एक संवादसेतु बनाया जायेगा ।
समाज के सभी संगठनों को साथ लाकर, सभी का साथ लेकर एक नई व्यवस्था एवं प्रबंधन के माध्यम से समाज के प्रति अपना दायित्व निभाने के प्रति अखिल भारतीय बढई महासभा संकल्पबद्ध है । समाज के गौरव को पुनर्स्थापित करने के लिए अखिल भारतीय बढई महासभा ' कृतसंकल्प है, संकल्पबद्ध है ।
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माननीय विश्राम शर्मा जी
राष्ट्रीय अध्यक्ष
अखिल भारतीय बढ़ई महासभा
मो० न० - 09455000085
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